वालेदैन के साथ नेक बर्ताव करना और उनका सम्मान हमेशा ध्यान में रखना इस्लाम के अहम और ज़रूरी अहकाम में से है और यह अल्लाह का ऐसा हुक्म है जो दूसरी सभी इबादतों से बढ़कर है क्योंकि अल्लाह ने वालेदैन की इताअत को अपनी इताअत के बाद ज़िक्र किया है।
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) ने इस विषय की अहमियत को समझते हुए फ़रमाया: वालेदैन के साथ नेक बर्ताव और उनका सम्मान, इंसान को अल्लाह के अज़ाब से बचाने का कारण है। (कश्फ़ुल-ग़ुम्मह, अली इब्ने ईसा अर्दबेली, जिल्द 1, पेज 492) हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) का यह केवल क़ौल नहीं है बल्कि आपकी सीरत में मिलता है कि बचपन से ही आप अपने वालेदैन का बेहद सम्मान करती थीं और हर तरह से अपने वालिद का ख़याल करती थीं, यही कारण है कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने आपको *उम्मे अबीहा* यानी अपने बाप की मां जैसा लक़ब आपको दिया था, आप उस दौर को याद करें जब हज़रत अबू तालिब (अ) और हज़रत ख़दीजा (स) की वफ़ात के बाद मक्का के मुशरिकों की ओर से हर तरह के ज़ुल्म व अत्याचार पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर किए गए यहां तक कि कभी आपको पत्थर फेंक कर मारते तो कभी आपका पूरा बदन सर से पैर तक मिट्टी से भरा होता, कभी आपको गाली देते तो कभी पूरा बदन ख़ून से रंगीन होता, ऐसे हालात में पैग़म्बरे अकरम (स) की बेटी हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) ही थीं जो एक मां की तरह आपके बदन को साफ़ करतीं आपके बदन के ज़ख़्मों को साफ़ कर के उस पर मरहम लगातीं, आपका पूरा ख़याल रखती थीं।
जिस समय इमाम अली अलैहिस्सलाम, हज़रत ज़हरा (स.अ) से शादी के साथ पैग़ाम को लेकर आए, पैग़म्बरे अकरम (स) ने हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) से उनकी मर्ज़ी पूछी तो आपने जवाब में कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! आपकी मर्ज़ी मेरी मर्ज़ी से बढ़कर है जो आपका फ़ैसला हो वही मेरी मर्ज़ी है, पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: अल्लाह की मर्ज़ी यही है, हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) ने फ़रमाया कि जब अल्लाह और उसके रसूल की मर्ज़ी यही है तो मैं भी राज़ी हूं। (मुख़्तसर तारीख़े दमिश्क़, इब्ने असाकिर, जिल्द 17, पेज 133)
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) हमेशा अपने वालिद को बहुत नर्म आवाज़ से पुकारतीं हमेशा इस बात का ख़याल रखतीं कि कहीं अपने वालिद को पुकारने में आवाज़ ऊंची न हो जाए, आप अपने वालिद द्वारा बताई गई हर बात को याद कर लेतीं विशेषकर आपके द्वारा बयान की गई हदीसों को ध्यान से सुनतीं और उन्हें याद करती थीं। (सफ़ीनतुल बिहार, मोहद्दिस क़ुम्मी, जिल्द 1, पेज 213)
आप हमेशा अपने वालिद की मर्ज़ी को ही अपनी मर्ज़ी समझती थीं और अपने वालिद की ख़ुशी के लिए अपने लिबास, घर के ज़रूरी सामान, गले का हार, हाथों के कड़े और यहां तक कि बच्चों के ज़रूरी सामान भी अल्लाह की राह में ग़रीब और फ़क़ीर मुसलमानों को दे दिया करती थीं। (बिहारुल अनवार, अल्लामा मजलिसी, जिल्द 43, पेज 81 / मनाक़िब, इब्ने शहर आशोब, जिल्द 3, पेज 343)
आपका यह सम्मान अपनी मां के लिए भी ऐसे ही था, रिवायतों में है कि जब आप मां के पेट में थीं तभी से अपनी मां से बातें करती थीं और जिस समय मक्के की औरतें हज़रत ख़दीजा (स) को पैग़म्बरे अकरम (स) से शादी को लेकर तरह तरह की बातें करती थीं आप ही उस समय में अपनी मां का इकलौता सहारा थीं आप उनसे बातें करतीं और उनको सब्र और धीरज रखने के लिए कहती थीं। (एहक़ाक़ुल हक़, जिल्द 10, पेज 12 / बिहारुल अनवार, जिल्द 43, पेज 102)
बच्चों के साथ भी आपका बर्ताव भी बहुत नेक था आप बच्चों की भावनाओं का ख़याल रखना आपकी सीरत का ख़ास हिस्सा रहा है, इस्लामी विचारधारा के अनुसार बच्चों की भावनाओं को आप अच्छी तरह समझती थीं, जेहालत के दौर के बाद जहां ख़ासकर बेटियों को ज़िंदा दफ़्न कर दिया जाता था आपने उस दौर में वालेदैन का बच्चों को प्यार से देखना एक ग़ुलाम आज़ाद कराने का सवाब रखता है चाहे दिन भर में तीन सौ बार ही क्यों न हो इस हदीस पर अमल करते हुए लोगों को अपनी औलाद का सम्मान और उनसे मोहब्बत से पेश आने का तरीक़ा सिखाया। (मकारिमुल अख़लाक़, शैख़ अबू अली फ़ज़्ल इब्ने हसन, पेज 218 / रौज़तुल वाएज़ीन, फ़ेताल नेशापूरी, पेज 431 / महज्जतुल बैज़ा, मुल्ला फ़ैज़ काशानी, जिल्द 4, पेज 443)
जैसाकि पैग़म्बरे अकरम (स) की हदीस है कि वह मां अल्लाह की रहमत और उसकी मेहेरबानी की हक़दार है जो अपने बच्चों की नेक कामों में मदद करे और बच्चों की क्षमता के अनुसार उनके कामों को सराहें, उनसे सख़्ती से बात न करें और उन पर बेवक़ूफ़ जैसे आरोप न लगाएं। (एहक़ाक़ुल हक़, जिल्द 10, पेज 654) इस जैसी हदीसों पर अमल कर के आपने वालेदैन को बच्चों से बातचीत करने और उनकी सहीह तरबियत करने का तरीक़ा लोगों को सिखाया।